परशुराम जी ने कितनी बार क्षत्रियों का विनाश किया

एक बार राजा परीक्षित् ने श्री शुकदेव जी से पूछा की क्षत्रियों ने ऐसा कोन सा अपराध किआ था जिससे की परशुराम जी ने बार बार उनके वंश का संघार किआ।

तब श्री शुकदेव जी ने कहा की है राजा परीक्षित् उन दिनों हेह्वंश का अधीपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ट क्षत्रिय था।उसने अनेको प्रकार की सेवा कर के भगवान् नारायण के अंशावतार श्री दत्तात्राये जी को परसन्न कर के उनसे एक हजार भुजाये ओर एक भी शत्रु युद्ध मे पराजित ना कर सके ऐसा वर प्राप्त किआ ओर साथ की इन्द्रियों का आबाध बल, शारीरिक बल,कृति ओर अतुल सम्पति उसने उनकी किर्प्या से प्राप्त की। अब वह योगेश्वर हो गया। उसमे सूक्षम से सूक्षम , ओर स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेता था। सभी सिधिया उसे प्राप्त थी। वह संसार मे बे रोक टोक कही भी जा (विचारण) कर सकता था। एक बार सहस्त्रबाहु अर्जुन गले मे वेजन्ती माला पहने नर्मदा नहीं मे बहुत सी सुंदरियों के साथ सनान कर रहा था। उस समय मंदोमस्त सहस्त्रबाहु अर्जुन ने अपनी भुजाओ से नदी का परवाह रोक दिआ। दशमुख रावण का शिविर भी कही पास मे था। नदी का प्रवाह उल्टा बहने लगा। जिससे की उसका शिविर डूबने लगा।रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था उससे सहस्त्रबाहु का ये पराक्रम सहन नहीं हुआ ओर रावण सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास जा कर बहुत बुरा भला कहने लगा। तब उसने अपनी इस्त्रियों के सामने रावण को पकड़ कर अपनी राजधानी महिष्मति ले आया ओर बंदर के समान बाँध दिआ। फिर महाराज पल्सतये जी के कहने पर उसने रावण को छोड़ दिआ।

एक बार सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने एक घने वन मे चला गया। देव्वश वह मुनि जमदगिन के आश्रम पर पहुंच गया। परम तपस्वी मुनि जमदगिन के आश्रम पर कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से जमदगिन मुनि ने हेहधीपति सहस्त्रबाहु का खूब आदर सत्कार किआ। उसने की मुनि का तो ऐश्वर्य तों मुझसे भी बड़ा चढ़ा है। उसको ये उनका आदर सत्कार सहन नहीं हुआ ओर उसने कामधेनु को ले जाना चाहा।उसने अभिमानवश जमदगिन मुनि से माँगा भी नहीं ओर वो कामधेनु को बल पूर्वक व्हा से ले गया। ओर अपनी राजधनी महिष्मति ले आया । जब वे सब चले गये , तब परशुराम जी आश्रम पर आये ओर उसकी दृस्ट्टा का वीरतांत सुनकर छोट खाये सांप की तरह तिलमिला उठे। वे अपना फरसा, धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े जैसे को शेर हाथी पर टूट पड़ता है। सहस्त्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर मे पर्वेश कर ही रहा था की उसने देख की परशुराम उसकी ओर बड़े वेग से उसको झप्टने आ रहे हे। वे हाथ मे धनुष बांण , फरसा लिए ओर शरीर पर काला मिर्गचरम धारण किये हुए थे। उनकी जटाये सूर्य की भांति चमक रही थी। उनको देखते हीं सहस्त्रबाहु अर्जुन ने अपनी सारी सेना जिन्होंने हाथ मे बाण धनुष,गदा , घोड़े पर स्वार सेना, हाथी आदि को परशुराम को मारने के लिए भेजी लेकिन परशुराम जी ने बातो हे बातो मे उसकी सारी सेना को नष्ट कर दिआ । भगवान परशुराम जी की गति वायू के समान अंत्यंत त्रीव थी वे बस शत्रुओं को काटते हे जा रहे थे। जहा जहा वे अपने फरसे का परहार करते वहा व्हा सेना के सिर हाथ प्रीथवी पर गिर जाते। सहस्त्रबाहु अर्जुन ने देखा की उसकी सारी सेना नष्ट हो गई हे तब परशुराम जी को मारने के लिए वो स्वम चला गया। उसने अपनी हजार भुजाओं पर एक साथ धनुष बाण लिए ओर परशुराम पर छोड दिये परन्तु परशुराम जी तो सहस्त्रधरियो के शिरोमणि ठहरे।उन्होंने अपने एक धनुष पर छोड़े हुए बाणो से ही एक् साथ सबको काट डाला। अब परशुराम जी ने अपनी तीखी धार वाले फर्से से उसकी सारी भुजाये काट डाली जब उसको बाहे कट गई तब परशुराम जी ने पहाड़ जैसे उसे सिर को धड़ से अलग कर दिआ ओर कामधेनु को अपने पिता को लोटा दी।

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